Thursday, February 16, 2012

एम.एफ. हुसैन : लगभग शताब्दी भर के कैनवास में पसरा जीवन

हुसैन की जिन वजहों से आलोचना होनी चाहिए, वह ‘इतर विवादों’ और व्यक्ति पूजक सामंती मूल्यों के आधार पर उन्हें तकरीबन द्वंद्व से परे विलक्षण प्रतिभा मान लेने के कारण छूटी रही है जबकि वहीं उनकी भत्र्सना जिन सांप्रदायिक, रूढि़वादी वजहों से हुई, वे हुसैन के कला कर्म की काबिल-ए-तारीफ जगहें थी।

करीबन एक शताब्दी का सक्रिय जीवन जीने के बाद मकबूल फिदा हुसैन अब नहीं रहे। हुसैन का पूरा जीवन एक फंतासी की तरह रहा है। 95 वर्षों के लम्बे जीवन की शुरुवात में तंगहाली, तरूणाई में ऊर्जा, जवानी में संघर्ष, अधेड़ उम्र में बेहद सफलता, आखिरी वर्षों में उनकी कलाकृतियों पर हुए विवादों के बाद देश से अघोषित निष्कासन, फिर नागरिकता का त्याग और अंत में देश के बाहर ही मौत, इस सब में एक रोचक ट्रैजिक कहानी है।

Wednesday, June 8, 2011

एक अपील भरा गिफ्ट


बहुत खास दोस्त मोहन ने कल कुछ रंगों और ब्रश को नीली पन्नी में लपेट कर मुझे बर्थडे गिफ्ट के बतौर दिया.... एक कविता सा पत्र भी साथ में था-


लौट आओ रंगों के बीच दुबारा
वे अब उदास हो चले हैं
वे फिर से छूना चाहते हैं तुम्हारी अँगुलियों को.
फिर से होना चाहते हैं
जीवित , जीवंत
और खेलना चाहते हैं.
धमाचोकडी मचाना चाहते हैं.
ये बच्चे अब बहुत उदास हो चले हैं.
लौट आओ अब
इनके बीच.

-सोचता हूँ कुछ कैनवास खाली पड़े हैं घर पर. इस दोस्त ने जगाया है मुझे गहरी नींद से. अब अनगढ़ ही सही कुछ चित्र बनाऊ.

Monday, April 11, 2011

‘मूर्तता-अमूर्तता के द्वन्द्व से हर कलाकार गुजरता है’


कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सोबनसिंह जीना परिसर अल्मोड़ा में अध्यापन कर रहे डॉ. शेखर जोशी स्वयं की विकसित की हुई शैली ‘नेल पेण्टिंग’ में अपने अद्भुत् चित्रांकन के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं। यूँ तो उन्होंने चित्रकला की अन्य विधाओं पर भी काम किया है, लेकिन नेल पेंटिंग में नाखूनों द्वारा आकृति रचना और रंगों का अद्भुत् प्रयोग विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करता है। एक मुलाकात में डॉ. शेखर जोशी से उनके समग्र कलाकर्म पर बातें करने का मौका मिला, जिसका सारांश प्रस्तुत है:-

प्रश्न:- सबसे पहले तो यहीं से शुरूआत करें कि आपकी चित्रकला अभिरुचियाँ कहाँ से जन्मीं ?

डॉ.शेखर जोशी:- शुरूआती दौर में मैं विज्ञान का छात्र रहा। चित्रकला में प्रारम्भ में सरसरी रुचि रही। मेरी मुलाकात इम्तियाज़ अली खान से हुई। उनकी एक भांजी अद्भुत् चित्रण किया करती थीं। मेरी चित्रकला की वे प्रेरणास्रोत रही हैं। गुरू जी (इम्तियाज अली खान) ने मुझे चित्रकला में निरन्तर सृजन के सुझाव दिए तो मैं विज्ञान छोड़ चित्रकला की दुनिया में आया। यहीं मेरी चित्रकला की शुरूआत रही है।

प्रश्न:- किन-किन विधाओं और विषयों पर आपने काम किया है ?

डॉ.शेखर जोशी:- मैंने प्रारम्भ तो कैलेण्डर, किताबों आदि से चित्रों को कॉपी करके ही किया। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि कॉपी करना कोई आर्ट नहीं है। आर्ट्स कालेज में जाने के बाद अन्य सारी विधाओं के बारे में पता चला। जलरंग, तैल रंग आदि पर मैंने चित्रकारी की। टैम्परा रंगों में भी मैंने बहुत काम किया है। आजकल मैं एक्रेलिक रंगों में भी चित्रण करता हूँ। कुल मिला कर लगभग सभी माध्यमों में मैंने काम किया है।

प्रश्न:- ‘नेल पेण्टिंग’ आपकी इज़ाद की हुई विधा रही है। इस पर काम करना आपने कब से प्रारम्भ किया ?

डॉ.शेखर जोशी:- ‘नेल’ विधा पर जो मैंने काम करना शुरू किया है, ये मुझे मेरे गुरू जी से ही पहले पहल मिली है। एक बार उन्होंने मुझे ब्लॉटिंग पेपर पर नाखूनों से काम करके दिखाया था। जब मैंने कुछ समय तक इस विधा पर काम किया और फिर उन्हें दिखाया तो उन्होंने परामर्श दिया कि ‘तुम इस विधा पर अच्छा काम कर सकते हो।’ तो प्रारम्भिक जानकारी तो उन्होंने ही मुझे दी थी। फिर मैंने इस विधा पर आकारों के स्ट्रोक्स, रंगों के स्ट्रोक्स का गहन अध्ययन किया। इस विधा पर कई चित्र बनाए। आज यह अपने आप में एक चर्चित चित्रकारी का रूप ले चुकी है।

प्रश्न:- लोक कला कहाँ से जन्मती है ? इसका उद्भव कहाँ से होता है ?

डॉ.शेखर जोशी:- लोक कला को हमारे जनमानस की कला कहा जाता है। यह मानव की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से जन्मती है। मानव ने अपने परिवेश को खूबसूरत बनाने के लिए मिट्टी से धरातल को लेपकर उपलब्ध रंगों से चित्रण किया है। यही लोक चित्रकला का उद्भव है।

प्रश्न:- कुमाऊँ के परिप्रेक्ष्य में चित्रकला का विकासक्रम रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं ?

डॉ.शेखर जोशी:- कुमाऊँ के संदर्भ में यदि हम कहें तो यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हमारे यहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र भी दिखाई देते हैं। अल्मोड़ा में ही लखुउडियार इसका एक उदाहरण है। इसके अलावा ‘ऐपण’, ग्रामीण भित्तीय चित्रण, चिन्ह पत्रियों आदि की सजावट के लिए हुआ चित्रण भी यहाँ दिखता है। कुमाऊँ से गढ़वाल की ओर चलें तो वहाँ मौलाराम की चित्र परम्परा देखने को मिलती है, जिसे भारतीय चित्रकला के इतिहास में गढ़वाली कलम के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न:- गढ़वाल में जो मौलाराम की चित्रकला परम्परा, भारतीय चित्रकला की एक कलम के रूप में विकसित हुई, वैसी कोई कला परम्परा कुमाऊँ में क्यों नहीं दिखाई देती ? इसके पीछे आप क्या कारण मानते हैं?

डॉ.शेखर जोशी:- हाँ, इस तरह से कोई कला परम्परा यहाँ नहीं दिखती है। अलबत्ता कुछ चित्र हमारे जी. बी. पन्त म्यूजियम अल्मोड़ा में संग्रहीत हैं, जिनसे हम कुमाऊँ की चित्रकला परम्परा को ढूँढ सकते हैं कि किस रूप में वह यहाँ पर विकसित हुई है। इस पर कार्य किए जाने की अत्यन्त आवश्यकता है।

प्रश्न:- कुमाऊँ की लोक चित्रकला परम्परा आज किस रूप में मौजूद है ?

डॉ.शेखर जोशी:- देखिए कुमाऊँ की लोकचित्र परम्परा की अपनी एक निश्चित पहचान है और सम्पूर्ण कला जगत में उसकी मान्यता भी है। ‘ऐपण’ प्रमुख रूप से यहाँ की लोक चित्र परम्परा है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ पूरे देश में परिचित है।

प्रश्न:- ऐपण के बारे में यह कहा जाता है कि यह गुजरात और महाराष्ट्र से यहाँ आई हुई कला है?

डॉ.शेखर जोशी:- यह कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ बसी हुई अधिकतम जातियाँ गुजरात और महाराष्ट्र आदि से ही यहाँ पर आइ हैं। तो वहाँ का प्रभाव यहाँ की लोकचित्र कला में भी स्वाभाविक रूप से ही आया होगा। लेकिन ऐपण कला के रूप में यहीं विकसित हुई है। अभी मैं उड़ीसा एक आर्टिस्ट कैंप में गया हुआ था, तो वहाँ पर मुझे ये जानकारी मिली कि वहाँ पर जनजातीय समूहों द्वारा बोली जाने वाली एक भाषा है ‘कुई’। हमारे गाँव का नाम भी ‘कुई’ ही है। संभवतः वहाँ से इसका कोई सम्बन्ध हो। मानव में भ्रमण की प्रवृत्ति बहुत पहले से रही है, जिससे सभ्यताओं व उनकी परम्पराओं का भी मिलाप हुआ है। इससे परस्पर सभ्यताओं, परम्पराओं, मान्यताओं आदि में एक-दूसरे का प्रभाव दिखाई देता है।

प्रश्न:- अभी लोककला से कला की समग्र दुनिया की ओर लौटें तो आपका क्या मानना है कि कला जन्म कहाँ से लेती है ?

डॉ.शेखर जोशी:- कला तो मानव के जन्म के साथ ही पैदा हो गई। किसी भी कार्य को सुन्दर ढंग से किया जाना ही कला है और मानव में तो ये प्रवृत्ति रही ही है।

प्रश्न:- ‘कला कला के लिए’ और ‘कला समाज के लिए’ की जो बहस है उसी से उपजा एक सवाल मेरा है कि कला के सामाजिक उत्तरदायित्व क्या होने चाहिए ? उसके सरोकार क्या होने चाहिए ?

डॉ.शेखर जोशी:- देखिए कला के सामाजिक उत्तरदायित्व ये होने चाहिए कि कला दूसरे को प्रसन्न कर सके और दर्शक के आनन्द में कलाकृतियाँ उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकें। यही उसका सामाजिक सरोकार है।

प्रश्न:- अभी कला जगत में अवचेतन कला का प्राधान्य आया है। इसे आप कैसे देखते हैं ?

डॉ.शेखर जोशी:- मानव स्वभाव है कि वह जो अभिव्यक्तियाँ नहीं कर पाता, वे उसके अवचेतन मन में रहती हैं। लेकिन अवचेतन मन भी उन सारी मानसिक स्थितियों को अवसर मिलने पर अभिव्यक्त करता है। इसका जरिया कला होती है। यही अवचेतन कला है। इसमें मूर्तता और अमूर्तता का एक अद्भुत् खेल है। कलाकार या तो मूर्तता से अमूर्तता की ओर जाता है या फिर अमूर्तता से मूर्तता की ओर। यदि कलाकार अमूर्त में पहले आता है तो उसे धीरे-धीरे मूर्त की ओर जाना है और यदि पहले मूर्तता को कलाकार ने पकड़ा है तो वह उसे अमूर्तता की ओर ले चलेगी। मूर्तता और अमूर्तता के बीच के द्वन्द्व से प्रत्येक कलाकार गुजरता है। वह चाहे जहाँ से भी शुरू करे उसके दोनों कोनों को वह पकड़ता है। यही आनन्द की अनुभूति है।

Monday, March 22, 2010

Wednesday, March 17, 2010

प्रकृति के आयाम बहुत वास्ट हैं....

लखनऊ फाइन आर्ट कॉलेज में आर्किटेक्चर डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष रहे डी0 एल0 साह की चित्रकला में रूचि और दखल समान है। अपने लैण्डस्केप चित्रों में उदासी के रंगों को फिराते चित्रकार साह के पास चित्रकला एक विजन के रूप में भी मौजूद है। चित्रकार डी0 एल0 साह से मेरी पिछले दिनों हुई बातचीत के अंश-
प्र0ः-सबसे पहले तो अपने बारे में बताइए कि आप में कला अभिरूचियां कहां से पैदा हुई? और आपके कला कर्म की शुरूआत कहां से रही है?
डी0 एल0 साहः जब मैं आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ा करता था तो मेरा आर्ट अच्छा समझा जाता था, फिर जब मैं दसवीं के बाद लखनऊ फाइन आर्टस् कालेज में गया तो मेरी दिली ख़्वाहिश फाइन आर्टस को ही विषय के रूप में लेने की थी लेकिन हमारे प्रोफेसर श्री विशाल लाल साह ने कहा कि तुम फाइन आर्ट नहीं करोगे। तुम्हैं वास्तुकला में एडमिशन लेना है।
इस तरह मैंने वास्तुकला में एडमिशन ले लिया। कुछ समय बाद जब में दशहरे की छुट्टियों में पिथौरागढ़ आया तो यहां मैं प्रकृति को देखकर विचलित हो उठा। क्योंकि इससे पहले मैं चित्रकला की गम्भीरता को समझता नहीं था और स्कूल में फूल पत्ती आदि के चित्रण को ही कला मानता था। लेकिन आर्टस् कालेज में फाइन आर्टस् के स्टूडैण्ट्स को कार्य करते हुए देखा था खास कर कि लैण्डस्कैप में। तो पिथौरागढ़ की बेहद खूबसूरत वादियों में मेरा विचलित हो उठना लाज़मी ही था। मेरे भीतर का चित्रकार इन छुट्टियों भर हिलोरे मारता रहा और उसने मुझे चित्रकला की ओर खींचा। नतीजा ये हुआ कि आर्टस् कालेज के, अपने चित्रकला की तकनीकों के ऑब्जर्वेशन्स के चलते मैंने लैण्डस्कैप्स बनाने शुरू कर दिए। मुझे कॉलेज में चित्रकला के अनुरूप माहौल मिला। हम एक दूसरे के काम से सीखा करते थे। जो भी लैण्डस्कैप मैं करके लाता अपने सीनियर्स को दिखाता। वहां एक टीचर थे फ्रैंक रैसली। वे लैण्डस्कैप के बड़े चित्रकार थे उन्हें मैं अपना वर्क जरूर दिखाता था। उनके सुझावों से मेरा काम काफी परिष्कृत हुआ। वहां तमाम कलाकारों के संपर्क मंे आने से मुझे कई चीजंे सीखने को मिली और मेरा एक अपना स्टाइल भी बनने लगा था। एक तरह से ये हो रहा था कि वास्तुकला मे रहते हुए चित्रकला की ओर ज्यादा आकृष्ट था।

प्रः- आपने किन किन माध्यमों पर काम किया है?
डी0 एल0 साहः- मैंने शुरूवात तो वॉटर कलर्स से ही की और लैण्डस्कैप ही ज्यादा किया था। उसके बाद धीरे धीरे जब वॉटर कलर मेरी पकड़ बनने लगी तो फिर स्टूडियो वर्क मैंने आयल कलर्स से करने शुरू किए। आउटडोर वर्क तो मैं तब भी वॉटर कलर या फिर स्कैचिंग से ही किया करता था।
प्रः-तो रचनाकर्म के लिए आपने लैण्डस्कैप के अतिरिक्त कौन सी विधाएं चुनी हैं ?
डी0 एल0 साहः- प्रतिनिधि रूप से लैण्डस्कैप में ही मैंने काम किया है इसके अतिरिक्त कम्पोजिषन भी तैयार किए हैं। कम्पोजिषन्स में जो फिगर आए हैं वो भी निभाऐ हैं। लेकिन पोट्रेट मैंने कभी एक्सपर्टाइज के साथ नहीं बनाऐ।
प्रः- मुख्य रूप से लैण्डस्कैप की विधा चुनने के क्या कारण रहे?
डी0 एल0 साहः- कारण ये रहे कि प्रकृति के आयाम बहुत वास्ट हैं। उसकी कोई लिमिट्स नहीं हैं। इसलिए मैने लैण्डस्कैप को विधा के रूप में चुना। लोग कहते हैं कि प्रकृति को चुन कर आप क्या कर लेंगे? लेकिन मेरा स्पष्ठ मानना रहा है कि नेचर में सब कुछ है। आपने अल्मोड़ा के एक चित्रकार ‘बुस्टर’ का नाम सुना होगा उनका काम देखिए उन्होंने अल्मोड़ा की आत्मा को पकड़ डाला है। उनके फ्रेम लीजिए उनके रंग लीजिए। वो कार्य की पराकाष्ठा है। मैंने बांकी कलाकारों को भी देखा है वो कार्य की उस गहराई तक नहीं जा पाऐ हैं। लेकिन ‘बुस्टर’ के चित्रों में लगता है जैसे अल्मोड़ा की मिट्टी उधर है।
प्रः- एक सवाल मेरा है, कला के दर्शन से। कला जन्म कहां लेती है?
डी0 एल0 साहः- कला की उत्पत्ति के बारे में मेरा अनुभव है कला ईश्वर की कृपा से जन्म लेती है। इसके लिए कोई जरूरत नहीं कि आप कितना पढ़े लिखे हैं अगर आप पर कृपा है तो आप कलाकार हो जाऐंगे। कबीर का उदाहरण ले लीजिए कबीर अनपढ़ थे लेकिन उनके भीतर रचना कर्म कर सकने की अद्भुत् क्षमताऐं थीं। यदि कोई ये समझे कि मैं बहुत ज्यादा पढ़ लिख कर कलाकार बन जाऊॅंगा तो आर्ट्स कालेज से आज तक न जाने कितने ही लोग प्रशिक्षित हुए लेकिन कलाकार कितने बने ये देखने वाली बात है।
प्रः- कला कला के लिए और कला समाज के लिए की दो बहसें हैं इनमें आप अपनी पक्षधरता कहां पाते हैं
डी0 एल0 साहः- देखिए मैं समाज को कोई मैसेज नहीं देना चाहता। वस्तुतः मैं कबीर से बहुत प्रभावित रहा हूं। क्योंकि जो उसके स्टेटमैंट्स रहे हैं उसमें समाज की कोई परवाह नहीं है। जो कुछ उसने कहना था कह डाला। और उसी तरह का मैं पेण्टर हूं। मैं स्पोन्टिनियस पेण्टर हूं किसी भी चीज से मैं प्रभावित होता हूं तो उसको मैं अपनी तरह से अभिव्यक्तित करता हूं। दूसरी ओर मैं गौतम बुद्ध को लेता हूं। गौतम बुद्ध अभिजात्य परिवार से संबद्ध रहे हैं वे ऐकेडमिक भी रहे हैं। उन्होंने हर एक बात नपी तुली बोली है। लेकिन कबीर ने ये नहीं देखा। कबीर ने अपने कला बोध से पानी में आग लगते हुए भी देखी गौतम बुद्ध ने तर्क तलाशे। ऐसे ही मछलियों को पेड़ में चड़ते हुए कबीर देख सकते हैं गौतम बुद्ध नहीं। ?ऐसे ही पेंटिंग की दुनिया में आप चित्रकार एम0 सलीम को ले लीजिए वह एक डिसिप्लिंड पेंटर हैं। ऐकेडमिक किस्म के। गौतम बुद्ध की तरह। और मेरे चित्रण में अराजकता है जैसी आप कबीर के भीतर पाएंेगे। अगर समाज मुझसे मैसेज लेना चाहे तो ठीक है लेकिन में कोई मैसेज देना नहीं चाहता।
प्रः-तो एक प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में एक कलाकार को समाज स्वीकारे क्यों? क्योंकि अन्ततः स्वीकार्यता तो समाज की ही है?
डी0 एल0 साहः- हां समाज की स्वीकार्यता तो है। लेकिन जिसको समाज ने कभी अस्वीकार किया है तो बाद में स्वीकार भी किया है। जैसे आप 18वीं षताब्दी में विन्सेन्ट वान गॉग को देखिए उन्हें कलाजगत में स्वीकार ही नहीं किया जाता था। लेकिन आज वो कला जगत का बड़ा नाम हैं।
प्रः- कला की जो मुख्यधारा है उसमें अभी अवचेतन कला को बड़ी मान्यता है। इसे आप कैसे देखते हैं?
डी0 एल0 साहः- देखिए मैं एब्स्ट्रैक्ट आर्ट को लगभग 1956 से देख रहा हूं। लेकिन अवचेतन कला जिसे कहा जाता है कि विचार से जन्मीं कला। कैनवास पर तो वह ज्यामितीय आकारों के भीतर ही है। अवचेतन तो कुछ नहीं है। उसके लिए जो आकार हमने लिए हैं वो भी प्रकृति से इतर नहीं हैं। हां लेकिन एक ट्र्रैण्ड चल पड़ा है।

प्रः- एक सवाल अब कुमाऊॅ की लोकचित्रकला के इतिहास पर है कि इसका विकासक्रम क्या रहा है?
डी0 एल0 साहः- कुमाऊॅ में चित्रकला की जो परम्परा मुख्यधारा की रही वो तो अंग्रेजों के आने के बाद ही की है। लेकिन इससे पहले ऐपण की और ऐसे ही लोकचित्रण की परम्परा और उससे भी पहले गुहाकालीन मानव की चित्रण अभिव्यक्ति रही है। पिछले 100 सालों और 150 सालों के भीतर जो यथार्थवादी अभिव्यक्ति कला की हुई है वो छिटपुट ही रही है और जितनी भी रही है या तो वो अंग्रेजों ने ही की या फिर अंग्रेजों की प्रेरणा ने ही उसके पीछे काम किया।

Saturday, March 6, 2010

कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है

चित्रकार के रूप में एम0 सलीम से मिलना प्रकृति के विविध पहलुओं से मिलना है। भूदृष्य चित्रण के कलाकार एम0 सलीम के चित्रों में प्रकृति के तमाम रंगो-आकार अंगड़ाई लेते दिखते हैं। जो कई बार रंगों में वाश तकनीक के प्रयोग से यथार्थ और स्वप्न के कहीं बीच लहराते नजर आते हैं। उनके कैनवास मूलतः इसलिए ध्यान आकर्षित करते हैं क्योंकि वहां प्रकृति की अनुकृति भी प्रकृति से एक कदम आगे की है। उनसे हुई कुछ बातें....... -रोहित जोशी

प्र0ः- सबसे पहले तो कुछ बहुत अपने बारे में बताइए? कला के प्रति आपकी अभिरूचि कहां से जन्मीं?
एम सलीमः- यूं तो ये रूझान बचपन से ही रहा हैै। जब छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो स्लेट में पत्थरों के ऊपर चॉख से, या इसी तरह कुछ, कभी जानवरों के चित्र, पेड़-पौंधे मकान आदि ड्रा किया करते थे। इसके बाद ऊॅची कक्षाओं में आए यहां काम कुछ परिष्कृत हुआ इसके अलावा कला अभिरूचियों में विस्तार के लिए एक कारण मैं समझता हूॅं प्रमुख रहा, अब तो यह चलन कम हुआ है, लेकिन पहले लगभग 50से 70 तक के दशक में अल्मोड़ा में बाहर से बहुत कलाकार आया करते थे और साइटस् पर जाकर लैण्डस्केप्स् किया करते थे। उन्हैं कार्य करते देखना अपने आप में प्रेरणाप्रद रहा। रूचि थी ही, कलाकारों को देखकर स्वाभाविक ही बड़ी होगी।
प्र0ः-चित्रकला सम्बन्धी शिक्षा-दीक्षा कहां से रही?
एम सलीमः- दसवीं पास करने के बाद पिताजी और उनके मित्रों ने मेरी कला में अभिरूचि को देखते हुए मुझे लखनऊ आर्टस् कालेज में दाखिला दिलवा दिया। वहांॅ फाईन आर्टस् का पॉंच वर्षों का कोर्स हुआ करता था। यहीं मेरी कला की समुचित शिक्षा दीक्षा हुई।
प्र0ः-आपने किन-किन माध्यमों और विधाओं में काम किया है?
एम सलीमः- मैंने जलरंग व तैलरंग दोनों ही माध्यमों में काम किया है। लेकिन मुख्य रूप से जलरंगों में मेरी बचपन से ही रूचि रही है। तैल रंगों से तो परिचय ही आर्टस् कालेज में जाकर हुआ और जहां तक विधाओं का सवाल है, मैंने लैण्डस्केप, पोट्रेट, स्टिल लाइफ, लाइफस्टडी, और एब्स्ट्रैक्ट आदि पर भी काम किया हैै। लेकिन यहॉं मुख्य रूप से लैण्डस्केप पर मेरा काम है। जिसे मैं अधिकतम् जल माध्यम के रंगों से ही करता हूं। जल माध्यम भी कला जगत् में बड़ा विवादास्पद रहा है। जो पुराने मास्टर्स रहे हैं, उनका मानना है कि पानी में घोलकर रंगों को पेपर में लगाया जाना चाहिए। इसमें पारदर्षिता होनी चाहिए। जैसे आपने कोई एक रंग लिया है, और उसके ऊपर दूसरा ले रहे हैं तो सारी परतें एक के बाद एक दिखनी चाहिए। इस तकनीक में अपारदर्शी रंगों का प्रयोग वर्जित माना गया है। लेकिन दौर बदला है और ये मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कई नऐ प्रकार के रंग माध्यम आए हैं। ऐक्रेलिक मीडियम है पोस्टर मीडियम है, इनके आने के बाद से आयाम बढ़े हैं।


प्र0ः- आपने मुख्य रूप से जल रंगों में जो लैण्डस्कैप को अपनी विधा के रूप में चुना इसके क्या कारण रहे। आपको ये ही पसन्द क्यों आया?
एम सलीमः- इसका मुख्य कारण प्रकृति में मेरी रूचि से था। आप देखेंगे हमारे पास तो काम के लिए छोटा सा कैनवास है लेकिन प्रकृति के पास ऐसे अनेक कैनवास हैं। इसी से लैण्डस्कैप में बहुत सारी चीजें हैं, जंगल र्हैं, नदियां हैं, झरने हैं, बादल हैं, मकान हैं, पेड़-पौंधे हैं, और भी कई अन्य चीजें हैं जिनको लेकर ताउम्र काम किया जा सकता है।
प्र0ः- कला के दर्शन से उपजता एक सवाल मैं आपसे करना चाहुॅंगा, कि-कला जन्म कहॉं से लेती है? उसका उद्भव कहां है?
एम सलीमः- मेरा इस बारे में जो मानना है वह यह है कि कला मूलतः पैदाइशी है। लेकिन इसे उभारने की प्रेेरणा हमारे चारों ओर मौजूद प्रकृति से मिलती है। जो चीज हमें अपील करती है उसके प्रति हमारे भीतर भावनाऐं पैदा होती हैं कि हम इन्हैं अपने मनोभावों के साथ पुनः उतारें, यहीं कला का जन्म होता है। मानव ने अपने प्रारंभिक अवस्था से ही ऐसा किया है।
प्र0ः- कला के संदर्भ में दो मान्यताऐं हैं ‘कला कला के लिए’ और ‘कला समाज के लिए’ ऐसे में आप स्वयं को कहॉं पाते हैं? और कला के सामाजिक सरोकार क्या होने चाहिए?
एम सलीमः- जो कहा जाता है कि- ‘आर्ट फॉर दि सेक ऑफ आर्ट’ ,‘कला कला के लिए’ ये अपनी जगह बिल्कुल सही चीज है। इसको आप बिल्कुल इप्त़दाई तौर से लें, जब आदमी समाज में नहीं बधा था, तब भी उसने सृजन किया है। प्रकृति की प्रेरणाओं से उसने चित्रांकन किया। लेकिन जब हम समाज में बध गए तो समाज के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्तरदायित्व भी बने हैं। समाज के भीतर बहसों की वजहें भी विषय के रूप में सामने आई। कई कलाकारों ने इन विषयों पर काम भी किया। यहां एक बात मैं समझता हूँ कि यह कलाकार की रूचि का विषय है कि वे इन पर कलाकर्म करे, न कि उसका उत्तरादायित्व।
प्र0ः- कुमाऊॅं पर बात करें। यहॉं चित्रकला के विकासक्रम को कैसे देखते हैं आप?
एम सलीमः- कुमाऊॅं के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों के अभाव में चित्रकला का विकास मुख्यतः लोककलाओं में ही रहा है। मुख्यधारा की चित्रकला परम्मरा यहॉं देखने को नहीं मिलती है। लोककलाओं में भी ज्यादातर योगदान महिलाओं का रहा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए घर के अलंकरण के जरिए सुलभ उपकरणों, रंगों आदि का प्रयोग कर उन्होंने चित्रण किया है। गेरू, चांवल, रामरज आदि का रंगों के लिए प्रयोग किया है। और इसके अतिरिक्त जो काम कुमाऊॅं में चित्रकला की मुख्यधारा का हुआ वह नगरी क्षेत्रों में हुआ। यह भी लगभग विगत् एक से डेढ़ शताब्दी पुरानी ही बात है।
प्र0ः- आप मुख्यतः प्रकृति के चितेरे रहे हैं। अभी यहॉं मुख्यधारा के कला जगत में अवचेतन कला में प्रधानता आई है। इसे ही मान्यता भी मिल रही है। इसे आप कैसे लेते हैं?
एम सलीमः- नऐ दौर का यह एक ऐसा क्रेज है जिसके बिना हम नहीं रह सकते। यह चित्रकला का समय के सापेक्ष विकास है। देखिए आज फोटोग्रॉफी, चित्रकला की प्रतिस्पर्धा में है। और साथ ही ये तकनीकी रूप से भी बहुत ऐडवांस हो गई है। इससे चित्रकला की पुरानी मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कैमरा सिर्फ एक क्लिक में चित्रकार के तीन चार घण्टे की मेहनत सरीखा परिणाम दे रहा हैै। ऐसे में यदि आप सिर्फ वस्तुओं की अनुकृति मात्र कर देंगे तो वह आकर्षित नहीं कर पाऐगी यदि आप अवचेतन विचारों का अपनी अनुकृति में प्रयोग करेंगे तो यह कलागत् दृश्टि से नवनिर्माण होगा व उसे मान्यता भी मिलेगी। यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि कैमरे के पास मन नहीं होता और न हीं संवेदनाऐं होती है। लेकिन कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है जो कि मौलिक सृजन करने की क्षमता रखता हैै।

प्र0ः- अवचेतन कला है क्या?
एम सलीमः- जिसको अवचेतन कला कहते हैं, ‘एब्स्ट्रैक्ट आर्ट’। तो एब्स्ट्रैक्ट तो वीज्युअल आर्ट में कुछ है ही नहीं। आकार रहित तो कोई कला हो ही नहीं सकती। हां ये जरूर है कि प्रकृति से वह विषय आपके भीतर गया है व रूप बदलकर बाहर आया है। बुनियादी रूप में वह मूर्त था बस जब तक आपके विचारों में रहा अमूर्त रहा लेकिन जब कैनवास में रंगों के माध्यम से उतरा फिर मूर्त हो उठा। हां लेकिन यह मूर्तता उस मूर्तता से अलग है जो वह प्रकृति में है।


चित्रकार एम0 सलीम से उनके इस पते पर संपर्क किया जा सकता है-
दुगालखोला, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड