Monday, April 11, 2011

‘मूर्तता-अमूर्तता के द्वन्द्व से हर कलाकार गुजरता है’


कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सोबनसिंह जीना परिसर अल्मोड़ा में अध्यापन कर रहे डॉ. शेखर जोशी स्वयं की विकसित की हुई शैली ‘नेल पेण्टिंग’ में अपने अद्भुत् चित्रांकन के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं। यूँ तो उन्होंने चित्रकला की अन्य विधाओं पर भी काम किया है, लेकिन नेल पेंटिंग में नाखूनों द्वारा आकृति रचना और रंगों का अद्भुत् प्रयोग विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करता है। एक मुलाकात में डॉ. शेखर जोशी से उनके समग्र कलाकर्म पर बातें करने का मौका मिला, जिसका सारांश प्रस्तुत है:-

प्रश्न:- सबसे पहले तो यहीं से शुरूआत करें कि आपकी चित्रकला अभिरुचियाँ कहाँ से जन्मीं ?

डॉ.शेखर जोशी:- शुरूआती दौर में मैं विज्ञान का छात्र रहा। चित्रकला में प्रारम्भ में सरसरी रुचि रही। मेरी मुलाकात इम्तियाज़ अली खान से हुई। उनकी एक भांजी अद्भुत् चित्रण किया करती थीं। मेरी चित्रकला की वे प्रेरणास्रोत रही हैं। गुरू जी (इम्तियाज अली खान) ने मुझे चित्रकला में निरन्तर सृजन के सुझाव दिए तो मैं विज्ञान छोड़ चित्रकला की दुनिया में आया। यहीं मेरी चित्रकला की शुरूआत रही है।

प्रश्न:- किन-किन विधाओं और विषयों पर आपने काम किया है ?

डॉ.शेखर जोशी:- मैंने प्रारम्भ तो कैलेण्डर, किताबों आदि से चित्रों को कॉपी करके ही किया। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि कॉपी करना कोई आर्ट नहीं है। आर्ट्स कालेज में जाने के बाद अन्य सारी विधाओं के बारे में पता चला। जलरंग, तैल रंग आदि पर मैंने चित्रकारी की। टैम्परा रंगों में भी मैंने बहुत काम किया है। आजकल मैं एक्रेलिक रंगों में भी चित्रण करता हूँ। कुल मिला कर लगभग सभी माध्यमों में मैंने काम किया है।

प्रश्न:- ‘नेल पेण्टिंग’ आपकी इज़ाद की हुई विधा रही है। इस पर काम करना आपने कब से प्रारम्भ किया ?

डॉ.शेखर जोशी:- ‘नेल’ विधा पर जो मैंने काम करना शुरू किया है, ये मुझे मेरे गुरू जी से ही पहले पहल मिली है। एक बार उन्होंने मुझे ब्लॉटिंग पेपर पर नाखूनों से काम करके दिखाया था। जब मैंने कुछ समय तक इस विधा पर काम किया और फिर उन्हें दिखाया तो उन्होंने परामर्श दिया कि ‘तुम इस विधा पर अच्छा काम कर सकते हो।’ तो प्रारम्भिक जानकारी तो उन्होंने ही मुझे दी थी। फिर मैंने इस विधा पर आकारों के स्ट्रोक्स, रंगों के स्ट्रोक्स का गहन अध्ययन किया। इस विधा पर कई चित्र बनाए। आज यह अपने आप में एक चर्चित चित्रकारी का रूप ले चुकी है।

प्रश्न:- लोक कला कहाँ से जन्मती है ? इसका उद्भव कहाँ से होता है ?

डॉ.शेखर जोशी:- लोक कला को हमारे जनमानस की कला कहा जाता है। यह मानव की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से जन्मती है। मानव ने अपने परिवेश को खूबसूरत बनाने के लिए मिट्टी से धरातल को लेपकर उपलब्ध रंगों से चित्रण किया है। यही लोक चित्रकला का उद्भव है।

प्रश्न:- कुमाऊँ के परिप्रेक्ष्य में चित्रकला का विकासक्रम रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं ?

डॉ.शेखर जोशी:- कुमाऊँ के संदर्भ में यदि हम कहें तो यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हमारे यहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र भी दिखाई देते हैं। अल्मोड़ा में ही लखुउडियार इसका एक उदाहरण है। इसके अलावा ‘ऐपण’, ग्रामीण भित्तीय चित्रण, चिन्ह पत्रियों आदि की सजावट के लिए हुआ चित्रण भी यहाँ दिखता है। कुमाऊँ से गढ़वाल की ओर चलें तो वहाँ मौलाराम की चित्र परम्परा देखने को मिलती है, जिसे भारतीय चित्रकला के इतिहास में गढ़वाली कलम के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न:- गढ़वाल में जो मौलाराम की चित्रकला परम्परा, भारतीय चित्रकला की एक कलम के रूप में विकसित हुई, वैसी कोई कला परम्परा कुमाऊँ में क्यों नहीं दिखाई देती ? इसके पीछे आप क्या कारण मानते हैं?

डॉ.शेखर जोशी:- हाँ, इस तरह से कोई कला परम्परा यहाँ नहीं दिखती है। अलबत्ता कुछ चित्र हमारे जी. बी. पन्त म्यूजियम अल्मोड़ा में संग्रहीत हैं, जिनसे हम कुमाऊँ की चित्रकला परम्परा को ढूँढ सकते हैं कि किस रूप में वह यहाँ पर विकसित हुई है। इस पर कार्य किए जाने की अत्यन्त आवश्यकता है।

प्रश्न:- कुमाऊँ की लोक चित्रकला परम्परा आज किस रूप में मौजूद है ?

डॉ.शेखर जोशी:- देखिए कुमाऊँ की लोकचित्र परम्परा की अपनी एक निश्चित पहचान है और सम्पूर्ण कला जगत में उसकी मान्यता भी है। ‘ऐपण’ प्रमुख रूप से यहाँ की लोक चित्र परम्परा है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ पूरे देश में परिचित है।

प्रश्न:- ऐपण के बारे में यह कहा जाता है कि यह गुजरात और महाराष्ट्र से यहाँ आई हुई कला है?

डॉ.शेखर जोशी:- यह कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ बसी हुई अधिकतम जातियाँ गुजरात और महाराष्ट्र आदि से ही यहाँ पर आइ हैं। तो वहाँ का प्रभाव यहाँ की लोकचित्र कला में भी स्वाभाविक रूप से ही आया होगा। लेकिन ऐपण कला के रूप में यहीं विकसित हुई है। अभी मैं उड़ीसा एक आर्टिस्ट कैंप में गया हुआ था, तो वहाँ पर मुझे ये जानकारी मिली कि वहाँ पर जनजातीय समूहों द्वारा बोली जाने वाली एक भाषा है ‘कुई’। हमारे गाँव का नाम भी ‘कुई’ ही है। संभवतः वहाँ से इसका कोई सम्बन्ध हो। मानव में भ्रमण की प्रवृत्ति बहुत पहले से रही है, जिससे सभ्यताओं व उनकी परम्पराओं का भी मिलाप हुआ है। इससे परस्पर सभ्यताओं, परम्पराओं, मान्यताओं आदि में एक-दूसरे का प्रभाव दिखाई देता है।

प्रश्न:- अभी लोककला से कला की समग्र दुनिया की ओर लौटें तो आपका क्या मानना है कि कला जन्म कहाँ से लेती है ?

डॉ.शेखर जोशी:- कला तो मानव के जन्म के साथ ही पैदा हो गई। किसी भी कार्य को सुन्दर ढंग से किया जाना ही कला है और मानव में तो ये प्रवृत्ति रही ही है।

प्रश्न:- ‘कला कला के लिए’ और ‘कला समाज के लिए’ की जो बहस है उसी से उपजा एक सवाल मेरा है कि कला के सामाजिक उत्तरदायित्व क्या होने चाहिए ? उसके सरोकार क्या होने चाहिए ?

डॉ.शेखर जोशी:- देखिए कला के सामाजिक उत्तरदायित्व ये होने चाहिए कि कला दूसरे को प्रसन्न कर सके और दर्शक के आनन्द में कलाकृतियाँ उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकें। यही उसका सामाजिक सरोकार है।

प्रश्न:- अभी कला जगत में अवचेतन कला का प्राधान्य आया है। इसे आप कैसे देखते हैं ?

डॉ.शेखर जोशी:- मानव स्वभाव है कि वह जो अभिव्यक्तियाँ नहीं कर पाता, वे उसके अवचेतन मन में रहती हैं। लेकिन अवचेतन मन भी उन सारी मानसिक स्थितियों को अवसर मिलने पर अभिव्यक्त करता है। इसका जरिया कला होती है। यही अवचेतन कला है। इसमें मूर्तता और अमूर्तता का एक अद्भुत् खेल है। कलाकार या तो मूर्तता से अमूर्तता की ओर जाता है या फिर अमूर्तता से मूर्तता की ओर। यदि कलाकार अमूर्त में पहले आता है तो उसे धीरे-धीरे मूर्त की ओर जाना है और यदि पहले मूर्तता को कलाकार ने पकड़ा है तो वह उसे अमूर्तता की ओर ले चलेगी। मूर्तता और अमूर्तता के बीच के द्वन्द्व से प्रत्येक कलाकार गुजरता है। वह चाहे जहाँ से भी शुरू करे उसके दोनों कोनों को वह पकड़ता है। यही आनन्द की अनुभूति है।

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